उस दिन के सूर्योदय की मुखाकृति में
वैसी तो थी न भिन्नता कोई।
प्रभात की पहली किरण अभी मार्किन राज्यों पर पड़ी ही थी,
और जाग उठा था चपलता भरा एक संसार नया,
एक संपन्न, शांत दुनिया थी जो सोई हुई।
सदा सुहावने प्रकृति का
उस दिन भी कोई जवाब न था।
आकाश पट पर था फैला नीला वर्ण गहरा।
लेकिन भला किसने सोचा था
कि उसी आसमान को चीरता हुआ
पर्दाफ़ाश होगा उस रोज़
मनुष्य का एक ऐसा अंदेखा, ऐसा अंजाना चेहरा?
काल ग्रस्त थे वे विश्व विख्यात
'जुड़वे' दो गगनस्पर्शी इमारत,
एवं उन इमारतों में कैद मासूम हृदयों
की थी इस तरह फूटी किस्मत,
आखिर किसने कल्पना की थी
कि इतिहास के पन्नों पर होगा इस प्रकार अंकित भी,
एक ऐसा भयंकर हादसा, जिसकी स्मृति तक होगी
केवल लहू से लथपत?
ऐसा प्रतीत हुआ मानों शहर के बीचोबीच कोई सूर्यास्त हुआ हो,
फ़र्के सिर्फ इतना कि इस सूर्यास्त में
संध्या की शांति व नीरवता नहीं थी कहीँ भी,
बस थी लोगों की चीखें, खौफ़ व देहशत भरी।
मानव निर्मित विमान ही सहसा
उन भवनों से वायु की गति से जा टकराया,
जैसे खेल में मग्न किसी निर्बोध बालक ने अज्ञात, अचेत, नादानी पूर्वक
गिराया हो अपने खिलौनें के ढाँचे को मार।
परंतु वह नादानी नहीं थी, जिसने समस्त विश्व को
दस्तक दिया, संसार के कड़वे वास्तव की।
यह थी बदले की आग, जिसने बेशक
दुनिया का दिल देहलाया था इस बार।
भ्रातृत्व के राग जपने और बंधुत्व के नाटक
के सिलसिलों के बीच में कहीं से
निस्संदेह हुई स्वार्थ एवं निष्ठुरता के हाथों,
स्वयं मनुष्यता की हार।
आखिर कौन सी शक्ति है प्रतिशोध की ज्वाला में ऐसी
कि मानव ने मानव को ही भाप बना देने के लिए
रची इस प्रकार की शातिरता से, एक ऐसी निर्मम साज़िश?
कौन सी है वह तृप्ति जो प्राप्त करता है मनुष्य,
घोलकर एक-दूसरे के मन में नफ़रत का विष?
क्या है आखिर वह लक्ष्य, जिसे मनुष्य
पाने की इच्छा रखता है, इस प्रकार
कि वह धर्म, दुश्मनी एवं पुण्य के नाम पर भी
युद्ध कर निर्दोष, निहत्थों, यहाँ तक कि
शिशुओं के भी प्राणों को नहीं है बख़्शता?
लापता हैं ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर इसी पृथ्वी में कहीं,
जहाँ मानव जैसे उच्च कोटी के इंद्रिय युक्त जीव
वास तो करते हैं हर जगह पर,
लेकिन असमर्थ हैं समझने को यह,
कि क्या है अनुचित, ग़लत और क्या है सही।
११ सितंबर, २००१ के आतंकवाद को
विश्व का कोई राष्ट्र झुठला नहीं सकता है कभी,
बस इसी लिए उन दोनों इमारतों का पुनर्निर्माण नहीं हुआ,
और वे याद दिलाते हैं उस दिन का दर्द, हूबहू, आज भी।
जिस प्रकार प्रतिकार ने उस दिन करीब ३००० लोगों की जानें ली,
मैं सोचने पर विवश हो जाता हूँ,
कि प्रगति और औद्योगीकरण के पथ पर
मनुष्य बढ़ तो रहा है ज़रूर,
लेकिन आज भी मनुष्य स्वयं मनुष्यता को समझने से है
बहुत दूर, बहुत बहुत दूर।।
VERY GOOD EFFORTS DONE BY YOUNG AUTHORS